""आहारनिद्राभयमैथुनच्च सामान्यमेतद् पशुभिर्नराणाम्।
धर्मो हि तेषामधिको विशेषो धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः॥""
अर्थात् आहार, शयन, भय और सन्तानोत्पत्ति की प्रक्रिया पशुओं और मनुष्यों में समान रूप से प्राप्त है, केवल धर्म के कारण मानव सर्वश्रेष्ठ प्राणी कहलाता है, यही कारण है कि धर्म रहित मानव पशु तुल्य माना गया है। प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि यह धर्म क्या है? जो मनुष्य को सर्वश्रेष्ठत्त्व प्रदान करता है। धर्म की व्याख्या करते हुए तथाकथित धार्मिकों ने विचित्र प्रकार की वेशभूषा, यज्ञादि में पशुबलि, अन्यों की उपासना पद्धति को स्वीकार न करते हुए हिंसा और बलपूर्वक अपनी ही पूजा पद्धति को सर्वोपरि स्थापित करना, करोड़ों मानवों को अछूत या अपने से छोटा मानते हुए उनके हाथ का स्पर्श किया हुआ भोजनादि ग्रहण न करना, बलात् दूसरों की उपासना पद्धति एवं जीवन शैली को परिवर्तित कराकर उन्हें अपने पन्थ का अनुगामी बनाना आदि धर्म बनाया। धर्म और ईश्वर के नाम पर विश्व के इतिहास में बड़े-बड़े युद्ध हुए, मानव रक्त से धरा लाल हुई और घृणा का ऐसा बीज धर्म के नाम पर बोया गया कि आज भी संसार के मानव धर्म के आधार पर विभक्त हैं और एक दूसरे का रक्तपान करने के लिये लालायित हैं। धर्म की कोख से उत्पन्न होने वाले आतंक, हिंसा और भय ने विश्वशान्ति को नष्ट भ्रष्ट कर दिया है।
जिस धर्म की स्थापना मानव को देवता बनाने के लिए हुई, जो धर्म सबको प्रेम, भ्रातृत्त्व एवं विश्वबन्धुत्व की भावना से रहना सिखाता है, जिसे हमारे प्रातः स्मरणीय ऋषियों ने साधना, तपस्या, समर्पण के द्वारा जाना, वह धर्म हमें आपस में वैर करना नहीं सिखा सकता, वह घृणा का सन्देश नहीं दे सकता। संभवतः मानव से ही कहीं भूल हुई है, जो उसने अधर्म को धर्म, असत्य को सत्य, अन्धकार को प्रकाश और विष को अमृत समझ लिया। अमृत का धर्म है जीबन देना, प्रकाश का स्वभाव है अन्धकार दूर करना। जैसे प्रातः काल पूर्व दिशा में भगवान् भास्कर के उदित होते ही अन्धकार दूर होता है, प्रवृति का कण-कण प्रफुल्लित हो उठता है, है, हृदर हृदय कमल खिल जाता है, मन शिव संकल्प के दिव्य भावों से परिपूर्ण हो जाता है, वैसे धर्म दिवाकर के उदित हो जाने पर संपूर्ण वसुधा में नव चैतन्य का संचार हो जाता है, प्रेम की निर्मल वारिधारा से सिञ्चित सबके हृदय एक दूसरे से जुड़ जाते हैं।
धर्म के नाम पर अपना स्वार्थ सिद्ध करने वालों ने दुनियों को नाना प्रकार से बहकाया, लड़ाया, धरती को बार-बार उजाड़ा और धर्म का सत्य-स्वरूप जानने नहीं दिया।
हमारे ऋषियों ने कहा था धारणाद् धर्म इत्याहुः धर्मो धारयते प्रजाः अर्थात् जिसे श्रद्धा पूर्वक धारण किया जाये वह धर्म है, धर्म से ही प्रजाओं का धारण होता है। अग्नि का धर्म है दाहकत्व, जल का धर्म है शीतलता, सूर्य का धर्म है अन्धकार दूर करना। यदि अग्नि में दाहकत्त्व न रहे, जल शीतलता का परित्याग कर दे, सूर्य अन्धकार दूर करने का काम न करे, हंस नीरक्षीर विवेकित्व छोड़ दें, तो इन्हें अग्नि, जल, सूर्य और हंस कौन कहेगा? जिस तत्त्व के कारण हम मानव हैं यदि हमने उसी का परित्याग कर दिया तो हम मानव कहलाने के अधिकारी नहीं रहेंगे।
अयि प्रबुद्ध पाठकवृन्द। परमात्मा ने हमें नीरक्षीर विवेक करने में समर्थ ऋतम्भरा प्रज्ञा प्रदान की है, सत्य और असत्य, नित्य और अनित्य, अच्छा और बुरा, हित और अहित, करणीय और अकरणीय का निर्णय करने में सक्षम मेधाबुद्धि प्रदान की है। सृष्टि के प्रभात काल से ही महामन्त्र गायत्री का जाप करते हुए 'धियो यो नः प्रचोदयात्' की प्रार्थना के साथ जिस निर्मल बुद्धि की हम कामना करते आ रहे हैं, उसी विमल बुद्धि से धर्म का स्वरूप जानकर अपने मानव जीवन को नन्दन वन और इस सृष्टि को सुख का धाम बनायें। धर्म का सामान्य अर्थ है कर्त्तव्य। अपने कर्त्तव्य का पालन करते हुए मार्ग में आने वाले पर्वत के समान कष्ट को हंसते-हंसते सहना, मान अपमान, हानि-लाभ, सुख-दुःख में समभाव से कर्त्तव्य का आचरण करते रहना धर्म है। परिवार के सदस्य स्व-स्व धर्म (कर्त्तव्य) का पालन करते हुए परिवार को स्वर्ग बना देते हैं। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम, राजाभोज, सम्राट्वीरविक्रमादित्य सदृश राजा, राजधर्म का पालन करते हुए इतिहास में अमर हो जाते हैं। महर्षि गौतम, कणाद, कपिल, पतञ्जलि प्रभृति ऋषिगण संन्यास धर्म का पालन करते हुए संपूर्ण धराधाम को ज्ञानामृत एवं प्रेमामृत से सींचकर हराभरा कर देते हैं और मानवता के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अपना नाम अंकित करा जाते हैं।
धर्म का वास्तविक स्वरूप या तो हमें परमात्मा की अमरवाणी वेद में और वेदानुकूल आर्षग्रन्थों में प्राप्त होता है अथवा मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम, योगेश्वर श्रीकृष्ण, जगदगुरुशंकराचार्य, महर्षि दयानन्द, राणाप्रताप, छत्रपति शिवाजी, स्वामी श्रद्धानन्द आदि प्रातः स्मरणीय महापुरुषों के महनीय चरित्रों के अध्ययन से प्राप्त होता है।
हम बड़े भाग्यशाली हैं कि हमें पवित्र भारतवर्ष में जन्म प्राप्त हुआ। इसके कण-कण में धर्म, प्रेम और मैत्री का वास है। जिस देश की रक्षा हिममण्डित देवतात्मा हिमालय प्रहरी के समान करता हो, गंगा जैसी नदियां अपने अमृत जल से जिसको युगों-युगों से सींचती हों, सागर जिसके चरण परवारता हो, जो विश्वगुरु के सर्वोच्च पद पर प्रतिष्ठित होकर संपूर्ण संसार को ज्ञान, विज्ञान, अध्यात्म और चरित्र की शिक्षा देता रहा हो, जिसकी धूलि को अपने माथे का चन्दन बनाने में अन्य देशवासी गौरव अनुभव करते हों, जहाँ ज्ञान, विज्ञान, धर्म, संस्कृति, साहित्य, कला कौशल का अपार भण्डार हो हम उस भारतमाता के अमर पुत्र-पुत्रियाँ हैं।
आइये! पुनः अपने ज्ञान, चिन्तन एवं आचरण की विमलवारिधारा से संसार रूपी मरुस्थल को हरा-भरा नन्दन वन बनायें, अपने ज्ञान, भक्ति एवं संकल्प दीप को प्रज्वलित कर वसुधा का अन्धकार मिटायें।
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