समय का चक्र सदैव गतिशील है और समय ही मनुष्य का सबसे बडा शिक्षक है क्योंकि समय और परिस्थितियों से सीख लेकर ही मनुष्य अपने जीवन की दिशा निर्धारित करता है। "पथ आप प्रशस्त करो अपना, अखिलेश्वर है अवलंबन को" गुप्त जी की इन पंक्तियों को आत्मसात कर जीवन की विषम परिस्थितियों का सामना करते हुए अपने अथक परिश्रम और ईश कृपा से हिंदी साहित्य के आचार्य पद पर कर्तव्यस्थ रहते हुए प्राचीन और अर्वाचीन साहित्य का निरंतर स्वाध्याय, चिंतन-मनन कर विभिन्न प्रासंगिक और प्रेरक विषयों पर राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठियों, शोध पत्रिकाओं में समय-समय पर अनेक आलेख लिखे। अधिकांशतः भारतीय संस्कृति के आधारभूत जीवन मूल्यों, वसुधैव कुटुंबकम् की उदात्त लोकमंगल की भावना, हिंदी साहित्य के आदिकाल, भक्ति काल के संत कवियों यथा महात्मा कवीर, मीराबाई सूरदास, जगन्नाथ दास रत्नाकर, द्विवेदी युगीन राष्ट्रवादी कवियों, महाकवि जयशंकर प्रसाद और रामधारी सिंह दिनकर के कालजयी काव्य एवं विविध विमर्शों पर मंथन करते हुए समकालीन काव्य रचनाओं के साथ ही अपने हाडौती अंचल की गीत परंपरा तथा कन्हैयालाल सेठिया, राजस्थानी महिला लेखन केंद्रित विषयों पर भी आलेख लिखे। वास्तव में मेरे सभी आलेख स्वान्ताय सुखाय के भाव से प्रेरित थे जिसमें मेरी एक समीक्षक व आलोचक की दृष्टि रही अपनी मान्यताएँ व स्थापनाएँ रहीं। अपने कुछ साहित्यकार बंधुओं और अध्येयता मित्रों के परामर्श पर मैंने अपने कुछ चयनित आलेखों को पुस्तकाकार देने का निश्चय किया इसके लिए मैं प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से प्रेरित करने वाले सभी मित्रों की आभारी हूँ। यह पुस्तक हिंदी साहित्य के सुधी पाठकों एवं शोधार्थियों का मार्गदर्शन करने में सहायक सिद्ध होगी ऐसा मेरा विश्वास है।
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