"इन्दीवराभां प्रविभक्तां शक्तां समस्तैकगुणप्रदात्रीम् ।
अध्यात्मविद्यात्ममहाप्रकाशां भासां विभासां च भजे सरस्वतीम् ।।"
"गोरख योग जगावे रे बाबा गोरख योग जगावे।
योग जगे सब संशय भागे, सारा मोह नशावे ।।
सोई सांपिन जागे अवधू वह तो फण फैलावे ।।
जागे सांपिणि, नाथ नथावे। सार ताहि कि नाथहिं जाणे, नाना नाच नचावे, गोरख योग जगावे ।।
ब्रह्म कहे वेदान्ती ताको मर्म न पावे।
गोरखनाथ निरञ्जन ताही परम पुरुष बतलावे ।।
अलख निरञ्जन यही ब्रह्म है गोरखनाथ बतावे ।।"
(सारस्वत कुण्डलिनी महायोग)
मानव जीवन के मूल्य का अनुशीलन में प्रायशः प्रत्येक मानव सतत प्रयासरत रहता है। इस की परिधि में तत्त्व के चिन्तन के साथ-साथ प्रवृत्ति तथा निवृत्ति रूप क्रिया का विश्लेषण किया जाता है। चूँकि अपरोक्षानुभूति ही दर्शन शब्द का भावात्मक पक्ष है, अतः दर्शनशास्त्र ही प्रत्येक प्राणी के लिए अनुसन्धेय होना चाहिए। "दृशिर्" ज्ञाने धातु से ल्युट् प्रत्यय करने से निष्पन्न दर्शन शब्द ज्ञान पक्ष को द्योतित करता हुआ प्रतीत होता है। यह सत्य भी है। परन्तु दार्शनिक विश्लेषण में प्रयुक्त दर्शन शब्द सम्यग् दर्शन को ही निर्देशित करता है। अतः इसकी परिधि में न केवल जीव की जीवता का निर्वचन ही मुख्य विषय है, अपितु जीव के अन्तः तथा बाह्य उभय पक्ष का विश्लेषण ही प्रधान तत्त्व है।
इन तत्त्वों के विश्लेषण को प्रतिपादन करने वाला शास्त्र दर्शनशास्त्र के नाम से जाना जाता है। प्रतिपाद्य विषय तथा प्रतिपादक के मतिभिन्नता होने के कारण यह अनेकधा प्राप्त होता है। जैसे सर्वदर्शनसंग्रह में श्रीमाघवाचार्य सोलह दर्शन सम्प्रदायों का उल्लेख किया है। वस्तुतः प्रमुखरूप से केवल नौ दर्शन सम्प्रदायों का ग्रहण किया जा सकता है। और यह नौ दर्शन सम्प्रदाय दो कोटी में विभक्त है।
जैसे :-
इन सभी नौ दर्शन सम्प्रदायों में से सांख्य तथा योग दर्शन सम्प्रदाय का विशेष महत्त्व है। ये दोनों ही दर्शन पूर्णतया व्यावहारिक है। प्रस्तुत प्रकरण योगदर्शन का होने से यहाँ पर हम केवल योगदर्शन का ही निर्वचन प्रस्तुत कर रहे हैं।
यह योगदर्शन बहुप्राचीन है। यह सूत्रकार पतञ्जलि से पूर्व भी विद्यमान था। इसके विषय में संक्षिप्त विवरण यहाँ पर दिया जा रहा है।
हिरण्यगर्भ को योग के आदि प्रवर्तक कहा जाता है। कहा गया है
कि :- "हिरण्यगर्भो योगस्य वक्ता नान्यो पुरातनः।" (यो०वा०, 1/1)
इस हिरण्यगर्भ के कोई रचना उपलब्ध नहीं होता है। पुराणपुरुष होने से इनका समय भी अनिर्दिष्ट है।
पतञ्जलि को योगशास्त्र के प्रचारक के रूप से स्वीकार किया जाता है। वस्तुतः पातञ्जल योग तथा प्राचीन योग के ग्रन्थों में वर्णित योग में भिन्नता देखी जाती है। हम केवल इतना ही कह सकते हैं कि पतञ्जलि ने स्वकीय पुस्तक योगसूत्र में चित्तवृत्तियों के निरोध को योग कहा है और योगी के तीन प्रकार के भेद तथा उनके अनुसार ही त्रिविध उपायों का भी वर्णन किया है। परन्तु योग को प्रतिपादन करने वाले अन्य मौलिक शास्त्रों में इस प्रकार का वर्णन उपलब्ध नहीं होते हैं। जैसे मालिनीविजयोत्तर तन्त्र, पराख्य तन्त्र, तन्त्रालोक आदि ग्रन्थों में जीवात्मा और परमात्मा के योग को योग कहा गया है। इनके यहाँ योगी के त्रैविध्य तथा उनके त्रिविध साधनों का भी वर्णन नहीं है। इनके अनुसार केवल छ प्रकार के अङ्गों के अनुष्ठान से ही अधिकारी पुरुष योगसिद्ध हो जाएगा। जैसे प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि तथा तर्क । इन षडङ्गों का विधान किया गया है।
हम यह कह सकते हैं कि यद्यपि योग हिरण्यगर्भ से प्रारम्भ हुआ है तथापि पतञ्जलि ने ही इसे दर्शन का स्वरूप दिया होगा।
पतञ्जलि अधुना प्रचलित तथा बहुशः प्रचारित योग पतञ्जलि के सरणि के अनुसार ही है। जो भी अभी योग का स्वरूप प्राप्त होता है वह निर्विवाद पतञ्जलि का ही है। पातञ्जल योग का ही सर्वत्र प्रसार है। इनका समय ई०पू० प्रथम शतक है। इनके द्वारा लिखित ग्रन्थ योगसूत्र, जो कि समग्र योगदर्शन का प्रमुख तथा आधारभूत है. निश्चित ही योगसिद्धि के लिए उपादेय है। इस ग्रन्थ में चार पाद है और यह सूत्रशैली से निबद्ध है। प्रथम पाद का नाम समाधि पाद है। इसमें 51 सूत्र हैं तथा इसमें योग के स्वरूप, भेद, उत्तम अधिकारियों के लिए उद्दिष्ट साधन तथा ईश्वरप्रणिधान का निर्वचन किया गया है। द्वितीय पाद का नाम साधन पाद है। इसमें 54 सूत्र तथा इसमें मध्यम और अधम अधिकारी के लिए उद्दिष्ट साधन तथा उससे प्राप्त सिद्धियों के विषय में निर्वचन किया गया है। तृतीय पाद का नाम विभूति पाद है। इसमें 55 सूत्र और संयम तथा संयम लभ्य विभूतियों के विषय में निर्वचन है। चतुर्थ पाद का नाम कैवल्य पाद है। इसमें 34 सूत्र और कैवल्य के विषय में निर्वचन प्राप्त होता है।
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