भूमिका
एक स्वाभाविक प्रश्न यही उठता है कि विभाजन पर अब कोई पुस्तक क्यों? विभाजन अब न तो किसी की स्मृतियों में शेष है न पूर्वजों के उन छूटे हुए किस्सों में जो अकसर घरों के अंधेरे कोनों में खण्डित स्वप्नों के साथ भटकते रहते हैं। न वे लोग ही जीवित हैं, जिन्होंने इसे भोगा। तीनों देशों (भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश) की नयी पीढ़ी के लिए इतिहास की असंख्य सुखान्त या दुखान्त घटनाओं की तरह विभाजन भी अब विस्मृत कर देनेवाली घटना बन चुका है। इन तीनों राष्ट्रों की भौगोलिक व अन्तर्राष्ट्रीय स्थितियाँ, इनकी आर्थिक, सामाजिक व राजनीतिक संरचना पूरी तरह स्वीकृत, स्वतन्त्र और सम्प्रभु हो चुकी हैं। विभाजन पर असंख्य पुस्तकें भी लिखी जा चुकी हैं। फिर यह पुस्तक क्यों? वस्तुतः इसे लिखने के तीन प्रमुख उद्देश्य हैं। पहला तो यह कि हिन्दी भाषा के वृहद् जगत में भारत विभाजन पर कोई भी प्रामाणिक व तथ्यात्मक पुस्तक उपलब्ध नहीं है। इस विषय पर अँग्रेजी की चर्चित व महत्त्वपूर्ण पुस्तकों का अनुवाद भी नहीं है। हिन्दीभाषी व्यक्ति यदि विभाजन की घटना को सम्पूर्णता में जानना व समझना चाहे, तो उसके पास कोई विश्वसनीय स्रोत नहीं है। यदि वह समझना चाहे कि यह देश कैसे स्वतन्त्र हुआ, कैसे इसके दो हिस्से हुए, क्यों हिन्दू व मुसलमान साथ नहीं रह सके, (आज भारत में लगभग 20 करोड़ मुसलमान साथ रह रहे हैं, जब पाकिस्तान बना तब लगभग 10 करोड़ थे) विभाजन के क्या परिणाम हुए, कैसे अँग्रेज इस देश से गये, सत्ता हस्तान्तरण कैसे हुआ क्या वैधानिक प्रक्रियाएँ थीं, विभाजन में किन व्यक्तियों की क्या भूमिका थी, समाज, राजनीतिक व आर्थिक जगत कैसे परिवर्तित हुए, तो वह किसी पुस्तक के माध्य इनके विश्लेषण एक पुस्तक के रूप में हिन्दी भाषा में उपलब्ध हो सकें जिससे कि देश के हिन्दी भाषी क्षेत्र का विशाल हिन्दू व मुसलमान समुदाय अपने अतीत की इस घटना के विभिन्न पक्षों व तथ्यों को जानने में सक्षम हो। दूसरा उद्देश्य यह कि विभाजन के लगभग 60 वर्षों बाद विभाजन का पुनरवलोकन किया जाये। गोइथे ने लिखा है, "समय-समय पर इतिहास दोबारा लिखा जाना चाहिए, इसलिए नहीं कि नये सत्यों की खोज हुई है, बल्कि इसलिए कि दृष्टि में नये पक्ष आते हैं, इसलिए कि एक युग की प्रगति के प्रतिभागी नयी दृष्टियों से देखे जाते हैं और जिसके कारण अतीत पर नये तरीके से ध्यान व निर्णय दिया जा सकता है।" नदी में डूबकर हम जल को नहीं देख सकते। उसे सम्पूर्णता में देखने के लिए दूरी चाहिए। इतिहास लेखन में तटस्थता एक अनिवार्य तत्त्व है और यह तटस्थता घटनाओं से अलग और दूर होकर उसे देखने से आती है। हमारे पास विभाजन की जो उपलब्ध प्रामाणिक सामग्री थी, जो आधारभूत विश्लेषण थे, उससे जुड़े मुख्य पात्रों के वक्तव्य, पत्र, डायरी आदि थे, वे सब या तत्कालीन ही थे या तत्काल बाद के कुछ वर्षों के थे और इसलिए कहीं न कहीं अपनी समकालीनता और अपनी पक्षधरता के पूर्वाग्रहों के प्रभाव में थे। निष्पक्ष अवलोकन, तटस्थ, व्याख्याएँ, अनासक्त दृष्टि और निर्भय विश्लेषण उनके लिए कठिन था। अब यह सम्भव भी है और सरल भी। 60 वर्षों का लम्बा अन्तराल हमें आज निर्लिप्त होकर दूर से देखने की यह सुविधा देता है। यदि उन समस्त घटनाओं का पुनःपाठ किया जाये, चरित्रों का पुनर्विश्लेषण किया जाये तो हम अब अधिक प्रासंगिक और पूर्वाग्रह रहित इतिहास के तथ्यों व निष्कर्षों को पा सकेंगे।
लेखक परिचय
प्रियंवद जन्म : 22 दिसम्बर 1952, कानपुर (उ.प्र.) शिक्षा : एम.ए. (प्राचीन भारतीय इतिहास एवं संस्कृति) प्रकाशित पुस्तकें : 'परछाई नाच', 'वे वहाँ कैद हैं' (उपन्यास); 'एक अपवित्र पेड़', 'खरगोश', 'फाल्गुन की एक उपकथा' (कहानी संग्रह)।
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