मध्ययुग के भक्त कवियों में महात्मा सूरदास का अप्रतिम स्थान है। प्राचीन काल के कवियों की भाँति मध्य युग के कवियों ने भी अपनी आत्मश्लाघा प्रकट नहीं की है। यही कारण है कि सूरदास के जीवन के सम्बन्ध में अब तक अनेक भ्रान्तियाँ बनी हुई हैं। सूर के जन्म के सम्बन्ध में, उनके जन्म स्थान के सम्बन्ध में, उनके अन्धत्व के विषय में, उनकी रचनाओं की प्रामाणिकता के विषय में विद्वानों ने अन्तः साक्ष्य एवं बहिर्साक्ष्य का आश्रय लेकर अटकलें लगाई हैं। उनके अन्धत्व के सम्बन्ध में आज तक यह बात स्पष्ट नहीं हो पाई कि वे जन्म से अन्धे थे या बाद में हुए थे। उनकी जन्म तिथि के विषय में भी अलग-अलग तीन मत मिलते हैं। इसी प्रकार जन्म स्थान के सम्बन्ध में सीही (वल्लभगढ़) और रुनकता (आगरा) भी विवादित है। इस विवाद का एक मात्र कारण यह है कि सूर का मन सदैव अपने आराध्य के गुण-गान में तल्लीन रहा, अपने विषय में कुछ लिखने की ओर उनका ध्यान ही नहीं गया। इसीलिए सूर पर लिखने वाले विद्वान समीक्षकों ने प्रायः जनश्रुतियों का अवलंबन लिया है।
मैंने स्नातकोत्तर कक्षा में एक प्रश्न पत्र के रूप में 'विशेष कवि सूर' का अध्ययन किया था, तभी से सूर के ऊपर कुछ लिखने की मेरी रुचि उत्पन्न हुई। मैंने सूर की समीक्षा विषयक अनेक पुस्तकों का गहन अध्ययन किया और अपनी बुद्धि के अनुसार उसे लिपिबद्ध किया। मैंने इस लेखन में कुछ नया तो नहीं किया है किन्तु विषय को स्पष्ट करने की पूरी चेष्टा की है। सूर सागर का 'भ्रमरगीत' अंश मुझे विशेष भाता रहा है। अतः मैंने इस पुस्तक में 'भ्रमरगीत' को ही केन्द्रविन्दु बनाया है। आज देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों की स्नातकोत्तर कक्षाओं में महाकवि सूरदास का पठन-पाठन होता है। यह पुस्तक विश्वविद्यालय के छात्रों को दृष्टि में रखकर ही लिखी गई है। अतः इस पुस्तक से छात्रों को यत्किंचित भी सहायता मिली तो मैं अपने श्रम को सफल समझेंगी।
इस पुस्तक को लिखने में मैंने सूर साहित्य पर लिखने वाले अनेक विद्वान समीक्षकों की पुस्तकों का आश्रय लिया है। अतः उन सभी विद्वानों के परोक्ष-अपरोक्ष किये गये सहयोग का मैं हृदय से आभार व्यक्त करती हूँ। अमर पब्लिकेशन के संचालक के प्रति भी मैं अपनी हार्दिक कृतज्ञता ज्ञापित करती हूँ जिन्होंने सहर्ष इस पुस्तक को प्रकाशित कर मेरा उत्साह वर्द्धन किया है।
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