संसार में समय-समय पर कुछ ऐसी विभूतियाँ जन्म लेकर कुछ ऐसा कार्य कर जाती हैं जिसकी सराहना न केवल तत्कालीन समाज द्वारा हो की जाती है अपितु युगयुगान्तरों तक उनके द्वारा किए गये कार्यों को बड़े आदर और निष्ठा के साथ स्मरण किया जाता है तथा उनका अनुसरण भी किया जाता है। वे जिस दिशा में कार्य करते हैं वे दिशाएँ उनके अलौकिक कार्यों से स्वतः ही बदल जाती हैं। वे स्वयं कण्टकाकीर्ण मार्ग पर चलकर आने वाली पीढ़ियों के लिए उन मार्गों को निष्कण्टक बना देते हैं। 20वीं शताब्दी में ऐसे हो एक महापुरुष ने जन्म लिया जिसने अपनी अलौकिक ज्ञानराशि से न केवल भारतीय वाङ्मय को हो गौरवान्वित किया अपितु विश्व के अन्य देशों के महापण्डितों के हृदयों पर भी 'यावच्चन्द्रदिवाकरौ' तब तक रहने वाली अपनी विद्वत्ता की छाप छोड़ दी। वह विभूति थी पद्मभूषण आचार्य डॉ० विश्वबन्धु । वे निस्सन्देह अपने समय के एक महापुरुष थे, उनके पाण्डित्य, प्रतिभा, उच्च-विचार, सादा जीवन, उदात्त भावनाओं की छाप सम्पूर्ण विश्व के क्षितिज पर आज भी विद्यमान है।
आचार्य विश्ववन्धु जी का जन्म 30-9-1897 में सरगोधा जिला के मेरा नामक कस्वे (आजकल पाकिस्तान) में हुआ। इनका बचपन का नाम चमनलाल था। आपके पूज्य पिता जी का नाम रामलुभाया (दिलशाद) था। इनके पिता जी कश्मीर में राजकोय सर्विस में थे, प्रायः घर से दूर ही रहते थे। बालक चमनलाल माता जी के पास ही रहता था। इनकी माता बहुत धार्मिक प्रवृत्ति की थीं, इसलिए इन पर धार्मिक दृष्टि से माता का पूरा प्रभाव था । यद्यपि माता भी शीघ्र ही इनको छोड़कर स्वर्ग सिधार गईं पर अपने धार्मिक संस्कारों से इन को सुसंस्कृत कर गईं। बालक चमनलाल का एक ही काम था पढ़ना । परम-पिता परमात्मा ने इस संसार में उनको भेजा ही इसलिए था कि वह बड़ा होकर अपनी ज्ञान राशि से आगामी पीढ़ियों को एक नवीन दिशा दे सके ।
बालक चमनलाल प्राथमिक शिक्षा के बाद हाई स्कूल की शिक्षा प्राप्त करने लाहौर चला गया, उस समय लाहौर आर्यसमाज का गढ़ था। वहाँ आर्यसंस्कृति से प्रायः सभी को परिचित कराया जाता था। चमन लाल की निर्मल बुद्धि पर आर्यसंस्कृति का अनायास ही ऐसा प्रतिबिम्ब पड़ा जैसे स्वच्छ मणि पर किसी वस्तु का तुरन्त प्रतिबिम्ब पड़ता है। वह अपनी पाठ्य-पुस्तकों के अतिरिक्त सद्ग्रन्थों का अध्ययन करते और अपने सहपाठियों को भी अध्यापन कराते, स्वल्पकाल में ही वे अपने सहपाठियों के श्रद्धा भाजन बन गए। कालेज में विज्ञान के साथ-साथ उन्होंने संस्कृत को भी अपने पाठ्य-क्रम का विषय रखा। संस्कृत के प्रति उनका विशेष लगाव था ।
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