शिक्षा राष्ट्रोन्नति का एक महत्वपूर्ण साधन है। देश, काल और स्थिति के अनुसार शिक्षा की समुचित व्यवस्था होने पर ही विभिन्न राष्ट्र प्रगति पथ पर अग्रसर हुए हैं। अमेरिका, रूस, जापान और पश्चिम के इंग्लैण्ड आदि देशों ने आधुनिक युग के अनुरूप अपनी अपनी शिक्षा प्रणाली में सुधार किये हैं; सैद्धान्तिक शिक्षा के साथ व्यावहारिक या औद्योगिक शिक्षा की विशेष व्यवस्था की गयी है। भारत भी एक प्रगतिशील राष्ट्र है, अतः यहाँ की शिक्षा प्रणाली में भी तदनुसार आमूल सुधार अपेक्षित हैं।
प्रसिद्ध शिक्षाविद् डा० सीताराम जायसवाल ने इस ग्रंथ में संसार के सभी समुन्नत देशों की शिक्षा-प्रणालियों का परिचय देते हुए उनकी तुलनात्मक समीक्षा प्रस्तुत की है और भारत के लिए आयोजित शिक्षा-सुधारों की मीमांसा करते हुए अपने स्वच्छंद विचार व्यक्त किये हैं। अतएव, शिक्षाशास्त्र का अनुशीलन करने वाले विश्वविद्यालय स्तर के अध्येताओं के लिए इस ग्रन् में प्रचर अध्ययन सामग्री समाविष्ट है। हिन्दी में इस प्रकार के दुर्लभ ग्रन्य की अवतारणा विद्याथियों एवं जिज्ञासुओं के लिए हर्ष का विषय है। हमें विश्वास है, डा० जायसवाल की इस नवीनतम कृति का शिक्षा-जगत् में यथेष्ट आदर होगा।
जब से विश्व के विभिन्न देशों का आपसी सम्पर्क बढ़ने लगा है तब से एक देश दूसरे देश की आर्थिक, सामाजिक एवं शैक्षिक उपलब्धियों में इस दृष्टि से रुचि रखने लगा है कि वह अपनी सामाजिक, आर्थिक एवं शैक्षिक प्रणाली में किस प्रकार अपेक्षित सुधार कर सकता है। जिन देशों पर विदेशी शक्तियों का शासन रहा है उन देशों की शिक्षा प्रणालियों का विकास बहुत कुछ विदेशी प्रभाव के फलस्वरूप हुआ। उदाहरण के लिए ब्रिटिश शासन काल में भारत की शिक्षा प्रणाली ने जो रूप धारण किया वही रूप स्वतन्त्र भारत में भी अब तक बना हुआ है। बार बार इस तथ्य की ओर शिक्षाशास्त्रियों का ध्यान गया है, लेकिन कुछ ऐसे राजनीतिक, प्रशासनिक एवं सांस्कृतिक घटक हैं जिनके कारण भारतीय शिक्षा प्रणाली में राष्ट्रीयता के तत्वों का वांछनीय समावेश नहीं हो पा रहा है। शिक्षा का तुलनात्मक अध्ययन इस पर समुचित प्रकाश डालता है। विश्व में ऐसे भी देश हैं जिन्होंने किसी पश्चिमी देश का अंधानुकरण किया और यह चाहा कि हमारा देश शिक्षा के माध्यम से पश्चिमी संस्कृति तथा जीवन शैली अपना ले। तुलनात्मक शिक्षा का अध्ययन यह स्पष्ट करता है कि इस प्रकार की चेष्टा निरर्थक होती है. क्योंकि शिक्षा की राष्ट्रीय प्रणाली के लिए ऐसे मूल आधारों की आवश्यकता होती है जो किसी देश की सांस्कृतिक परम्परा और राष्ट्रीय चेतना के अनिवार्य अंग होते हैं। शिक्षा का तुलनात्मक अध्ययन यह स्पष्ट निर्देश करता है कि यदि कोई देश अपनी आवश्यकताओं के अनुसार सामाजिक परिवर्तन और प्रगति चाहता है तो उसे अपनी परिस्थितियों को ध्यान में रखकर एक ऐसी शिक्षा प्रणाली का निर्माण करना होगा जो जनमानस में स्थान पा सके और जिसके द्वारा जनसामान्य की आकांक्षाओं एवं आवश्यकताओं की समुचित पूति हो। यही कारण है कि भारत में शिक्षा के पुनर्गठन के निमित्त कोठारी शिक्षा आयोग ने जौं संस्तुतियाँ की हैं उनमें इस बात पर बल दिया गया है कि भारत की शिक्षा भारतीय जनता के जीवन की आवश्यकताओं तथा आकांक्षाओं की पूर्ति करे।
शिक्षा का तुलनात्मक अध्ययन इस बात को सिद्ध करता है कि उन्हीं राष्ट्रों ने शिक्षा का उपयोग वांछनीय सामाजिक परिवर्तन एवं प्रगति के लिए किया है जो जनजीवन, समाज और शिक्षा में जीवित सम्बन्ध विकसित करने में सफल हुए हैं।
आधुनिक युग में वैज्ञानिक एवं तकनीकी प्रगति अत्यधिक हुई है और इसका प्रभाव शिक्षा पर भी पड़ा है। ब्रिटेन, अमेरिका और रूस जैसे देशों की शिक्षा प्रणाली का अध्ययन करते समय हमारा ध्यान इस बात की ओर जाता है कि किस प्रकार जीवन के वैज्ञानिक एवं तकनीकी युग में शिक्षा व्यक्ति की कार्य कुशलता बढ़ाने में सफल हुई है। लेकिन इसी के साथ यह भी ज्ञात होता है कि जीवन मूल्यों की उपेक्षा घातक है। पश्चिम के समृद्ध देशों में भौतिक उपलब्धियों को जो अत्यधिक महत्व दिया गया है उसके परिणामस्वरूप व्यक्ति का आन्तरिक जीवन सूना सूना है और वह अपने को जन समूह में अकेला अनुभव करता है। शिक्षा का तुलनात्मक अध्ययन इस बात की आवश्यकता पर बल देता है कि भौतिक उपलब्धियों तथा आध्यात्मिक मूल्यों में समन्वय हो। दूसरे शब्दों में, आज के युग की माँग है कि विज्ञान और अध्यात्म में एक ऐसा संतुलन हो जो मनुष्य को वांछनीय विवेक प्रदान करे, ताकि वह विज्ञान द्वारा दी गयी अपार शक्ति का उपयोग लोक कल्याण के लिए कर सके।
प्रस्तुत ग्रन्थ की रचना करते समय लेखक का ध्यान प्रमुख रूप से शिक्षा शास्त्र के विद्यार्थियों की आवश्यकताओं की ओर रहा है। भारत के कतिपय विश्वविद्यालयों में विभिन्न देशों की शिक्षा प्रणालियों का अध्ययन पाठ्यक्रम में सम्मिलित किया गया है। स्नातकोत्तर कक्षाओं में भी 'तुलनात्मक शिक्षा का अध्ययन' महत्वपूर्ण विषय है। हिन्दी में अब तक दो या तीन ही ऐसी पुस्तकें तुलनात्मक शिक्षा पर हैं जिनका उपयोग विद्यार्थी किसी न किसी रूप में करते हैं। लेकिन तुलनात्मक शिक्षा जैसे गहन और महत्वपूर्ण विषय पर एक ऐसे ग्रन्थ की आवश्यकता बनी हुई थी जो न केवल शिक्षा शास्त्र के विद्यार्थियों के लिए उपयोगी हो वरन् शिक्षाशास्त्र के प्राध्यापक एवं प्रबुद्ध पाठक भी उससे लाभान्वित हो सकें। प्रस्तुत ग्रन्थ के द्वारा इसी आवश्यकता की पूर्ति का प्रयास किया गया है।
इस ग्रन्थ में तीन खंड है। प्रथम खण्ड में तुलनात्मक शिक्षा के स्वरूप, विधियों, घटकों तथा राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली के आधार पर समुचित प्रकाश डाला गया है। अब तक जिन लेखकों ने तुलनात्मक शिक्षा पर हिन्दी में पुस्तकें लिखी हैं उन्होंने इस सम्बन्ध में बहुत ही कम लिखा है। लेखक को इस बात का संतोष है कि उसने प्रथम बार हिन्दी में तुलनात्मक शिक्षा के सैद्धान्तिक पक्ष की व्याख्या की है।
प्रस्तुत पुस्तक के द्वितीय खण्ड में विभिन्न देशों की शिक्षा प्रणालियों का वर्णन है। लेखक के लिए स्थानाभाव के कारण यह सम्भव नहीं था कि वह सभी देशों की राष्ट्रीय शिक्षा प्रणालियों से अपने पाठक को परिचित कराता। फिर भी विश्व के प्रमुख देशों की शिक्षा प्रणालियों का जो विवरण प्रस्तुत किया गया है उससे यह स्पष्ट रूप से ज्ञात होता है कि लोकतंत्रात्मक और साम्यवादी विचारधाराओं ने किस प्रकार शिक्षा की राष्ट्रीय प्रणालियों को प्रभावित किया है।
इस ग्रन्थ के तृतीय खण्ड में शिक्षा के विभिन्न सोपानों के आधार पर ब्रिटेन, संयुक्त राज्य अमेरिका, सोवियत संघ और भारत की शिक्षा व्यवस्था का अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। वैसे तो यह स्पष्ट है कि प्रत्येक राष्ट्र की अपनी एक परम्परा होती है और विभिन्न देशों की शिक्षा प्रणालियों का तुलनात्मक अध्ययन केवल इस बात का संकेत करता है कि किस प्रकार कोई देश अपनी शैक्षिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने में सफल रहा है। लेकिन जब हम अन्य देशों की शिक्षा प्रणालियों के विभिन्न सोपानों से परिचित होते हैं तब हमें यह ज्ञात होता है कि हमारी शैक्षिक दशा कैसी है और हम अपनी परिस्थितियों की सीमा में क्या कुछ कर सकते हैं।
इस पुस्तक को लिखते समय लेखक ने तुलनात्मक शिक्षा के विशेषज्ञों के ग्रन्थों का अध्ययन किया और उनके विचारों से बह लाभान्वित हुआ। इस अवसर पर हारवर्ड विश्वविद्यालय के प्रो० राबर्ट यूलिक और मिशीगन विश्वविद्यालय के प्रो० इगर्टन के प्रति लेखक अपना आभार प्रकट करता है। इन्हीं दो प्राध्यापकों ने लेखक का तुलनात्मक शिक्षा से परिचय कराया। अन्त में लेखक उन सभी व्यक्तियों का आभारी है जिन्होंने उसे इस ग्रन्थ की रचना में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सहायता प्रदान की है।
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