प्राचीनकाल से अपनी भौगोलिक, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक एवं शैक्षणिक सम्पदा के लिये सुविख्यात मध्यप्रदेश के हृदयस्थल में अवस्थित सागर तथा दमोह मण्डलों में देववाणी संस्कृत के विकास का मूल्यांकन अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कार्य हैं। पुरातात्त्विक साक्ष्य इस बात के प्रमाण हैं कि इन दोनों मण्डलों में प्राचीन काल से ही संस्कृत का सातिशय प्रचार-प्रसार रहा है। प्राच्य काल के समान आधुनिक युग में भी यहाँ संस्कृत शिक्षा, भाषा एवं साहित्य के समस्त पक्षों का विकास हुआ। किन्तु हमारे आधुनिक संस्कृत मनीषियों ने कालिदास आदि महाकवियों की भाँति संकोच परम्परा को अपनाते हुये अपना व अपनी रचनाधर्मिता का गुण-गान नहीं किया।
आधुनिक काल में पाश्चात्य संस्कृति व साहित्य का बढ़ता प्रभाव और संस्कृत-शिक्षा, साहित्यकारों तथा साहित्य सामग्री पर पड़ने वाले प्रकाश का अभाव, इस प्रकार के अनेक कारण आज अन्यान्य भाषा एवं साहित्य की तुलना में संस्कृत शिक्षा भाषा एवं साहित्य को अत्यन्त उपेक्षित अथ च निम्नतर परिलक्षित कर रहे हैं। वर्तमान परिवेश में भारतीय संस्कृति व सभ्यता के उत्कर्ष एवं अक्षुण्णता हेतु संस्कृत का उत्थान परमावश्यक है। संस्कृत शिक्षा एवं साहित्य की गौरवमयी परम्परा के अभिवर्द्धन तथा इसकी श्री वृद्धि में इन दोनों जिलों के उन्नायक संस्कृतज्ञों का महनीय योगदान है। स्वातंत्र्योत्तर काल में इस क्षेत्र में प्रचुर मात्रा में संस्कृत अध्यापन व साहित्य-प्रणयन हुआ है। यहाँ के शिक्षण संस्थानों एवं संस्कृत साहित्यकारों ने संस्कृत शिक्षा एवं साहित्य सम्बर्द्धन हेतु अहर्निश कार्य सम्पादित किये हैं। इस क्षेत्र के संस्कृत मनीषी अपनी मेधा एवं रचनाधर्मिता के लिये अन्ताराष्ट्रिय स्तर पर सुविख्यात हैं। उनकी रचनाएँ सर्वत्र आदर एवं सम्मान सहित पढ़ी जाती हैं। इन रचनाओं में भाषा, विषय, संकलन, सम्पादन व प्रकाशन उत्कृष्ट कोटि का होता है। किन्तु इन सभी का अभी तक वास्तविक आकलन नहीं हुआ था। वर्तमान परिवेश में यह अत्यन्त आवश्यक है कि आधुनिक समाज के साथ-साथ भावी पीढ़ी हमारी गौरवपूर्ण भारतीय संस्कृति सभ्यता की आधारभूत संस्कृत वाङ्मय तथा तत्सम्बन्धी शिक्षण-संस्थानों, मनीषियों, आचार्यों, साहित्यकारों एवं साहित्य से सुपरिचित हो। अत एव मैंने प्रतिष्ठित एवं नवोदित संस्कृत शिक्षण संस्थानों, मनीषियों तथा उनके द्वारा सृजित संस्कृत साहित्य पर प्रकाश डालने हेतु संकल्प लिया। पूजनीया डॉ० श्रीमती कुसुम भूरिया दत्ता तथा शृद्धेय प्रो० डॉ० भागचन्द्र जैन 'भागेन्दु' जी ने शोध की वैज्ञानिकता को दृष्टिगत रखते हुये समय, विस्तार आदि परिधियों के कारण सागर एवं दमोह मण्डलों के स्वातंत्र्योत्तर संस्कृत शिक्षा, संस्कृत मनीषियों और उनके द्वारा रचित संस्कृत साहित्य के आधार पर शोध कार्य करने का सत्परामर्श एवं इस हेतु अपना निर्देशन प्रदान करने की अनुमति प्रदान कर मुझे अनुग्रहीत किया है। इस प्रकार 'स्वातंत्र्योत्तर संस्कृत शिक्षा तथा साहित्य के विकास में सागर एवं दमोह मण्डल का योगदान' मेरे शोध का विषय सुनिश्चित हुआ।
प्रस्तुत ग्रन्थ में संस्कृत शिक्षा तथा साहित्य के विकास में सागर एवं दमोह जिलों द्वारा, स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् किये गये संस्कृत सम्बर्द्धक कार्यों को रूपायित करने का प्रयास किया गया।
प्रथम अध्याय प्रथम अध्याय में सागर एवं दमोह जिलों की भौगोलिक अवस्थिति, उनका ऐतिहासिक स्वरूप, सांस्कृतिक एवं साहित्यिक सम्पन्नता का परिचय दिया गया है।
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