हिन्दी साहित्य की विधाओं में कहानी एक प्रमुख विधा है। जिसमें कहानीकार या लेखक अपने विचारों सहित कहानी के पात्रों के चारित्रिक विशेषताओं का वर्णन करते हुए कहानी के उद्देश्य को पूर्ण करता है। लेखक के कहानी लिखने की कला अलग-अलग हो सकती है लेकिन कहानी का उद्देश्य एक जैसा प्रतीत होता है। पूर्व कहानी की अपेक्षा आधुनिक कहानी में काफी अन्तर पाया जाता है। जैसे मुंशी प्रेमचन्द की कहानी तथा मालती जोशी की कहानी को देखा जाय तो दोनों के लिखने की कला बिल्कुल अलग ढंग से प्रतीत होती है।
हिन्दी कहानी का आरम्भ सन् 1900 में प्रकाशित होने वाली उस सरस्वती पत्रिका से हुआ जिसमें पंण्डित किशोरीलाल गोस्वामी की इन्दुमती 1900 ई० को प्रकाशित हुआ था। कहानी को प्रमुख रूप से पाँच भागों में बाँटा गया है। कहानी के कुछ ऐसे तत्व होते हैं जो प्रायः सभी कहानियों में पाये जाते हैं। किन्तु यह भी सही है कि सभी समान रूप से नहीं होते। किसी की विषय-वस्तु प्रधान होती है तो किसी के पात्र या चरित्रों की प्रधानता होती है। कहीं वातावरण प्रमुख होता है तो कहीं भाव महत्वपूर्ण होता है। कहने का तात्पर्य यह है कि कहानी में विभिन्न तत्वों की प्रधानता से कई रूप मिलते हैं। तत्वों के इन्हीं रूपों के आधार पर कहानियों के पाँच भेद हैं।
घटना प्रधान कहानी- जिन कहानियों में क्रमशः अनेक घटनाओं को एक सूत्र में पिरोते हुए कथानक का विकास किया जाता है अथवा किसी दैवीय घटना और संयोग का विशेष सहारा लिया जाता है। उन्हें घटना प्रधान कहानी कहा जाता है। स्थूल आदर्शवादी कहानियाँ जासूसी, रहस्यपूर्ण, तिलस्मी एवं अद्भुत कहानियाँ प्रायः इसी प्रकार की होती हैं। इसमें सूक्ष्म भावों की अभिव्यंजना पर बल नहीं होता है बल्कि मनोरंजन पर बल रहता है। ऐसी कहानियाँ कला की दृष्टि से साधारण कोटि की मानी जाती हैं।
चरित्र प्रधान कहानी- इस प्रकार की कहानियों में चरित्र-चित्रण की प्रधानता होती है। वे चरित्र प्रधान कहानियों के वर्ग में आती हैं। चरित्र प्रधान कहानियों में लेखक का ध्यान पाठकों को घटनाओं के विस्तार में न उलझाकर कहानी के पात्रों के चरित्र चित्रण निरूपण की ओर रहता है। इन कहानियों का मुख्य धरातल मनोवैज्ञानिक होता है। चरित्र प्रधान कहानियाँ घटनाओं को छोड़कर पात्र के चरित्र और मनोवृद्धि अर्थात मनुष्य के शरीर के भीतर की भावनाओं, संवेदनाओं, विचारों एवं क्रिया प्रतिक्रियाओं को बहुत ही सूक्ष्म ढंग से व्यक्त करती है। इनमें व्यक्ति के अन्तर्मन का चित्रण होता है। इस आधार पर हम कह सकते हैं कि चरित्र प्रधान कहानियों में पात्रों के माध्यम से व्यक्तियों के भीतर पनप रही आत्मा, संघर्ष, सहानुभूति एवं महत्वाकांक्षा इत्यादि अत्यन्त सूक्ष्म भावों को व्यक्त किया जाता है। मूलतः इन कहानियों में पात्रों के मनोगत भावों और मानसिक संघर्षों को महत्व दिया जाता है।
वातावारण प्रधान कहानी-इन कहानियों में वातावरण अर्थात् परिवेश को महत्व दिया जाता है क्योंकि कहानी केवल कल्पना न होकर जीवनपरक है और जीवन हमेशा वातावारण से शुरू होता है। हमारे प्रतिदिन के कार्यों और व्यवहारों में किसी न किसी का प्रभाव होता है। विशेषतः ऐतिहासिक कहानियों में वातावरण अधिक महत्वपूर्ण होता है क्योंकि वहाँ किसी युग विशेष का इस युग की संस्कृति सभ्यता आदि का वर्णन करना होता है। प्राकृतिक परिवेश संवाद, संगीत, भाषा आदि की सहयता के वातावरण को जीवन बनाया जाता है। प्रेमचन्द की पूस की रात, गुल्ली डण्डा तथा प्रसाद की बिसाती, बनजारा में यह तत्व पूर्ण रूप से चरितार्थ हुआ है।
भाव प्रधान कहानी- भाव प्रधान कहानियाँ प्रायः चरित्र और वातावरण को प्रमुखता देने वाली कहानियों की तरह होती हैं। यह कह सकते हैं कि चरित्र प्रधान व वातावरण प्रधान कहानियों के बीच में भाव प्रधान कहानियाँ आती हैं। क्योंकि इनमें केवल किसी भाव या विचार को आधार बनाकर समूचा कथानक निर्मित होता है और उसी के आधार से समूची कहानी अपनी एक लय के साथ निर्मित होती है। ऐसा कहानियों में एक भावना में एक भावना को गौण रखा जाता है। जैसे-जैनेन्द्र की नीलम देश राजकन्या, अज्ञेय की कोठरी की बात, टैगोर की भूखा पत्थर उल्लेखनीय हैं। भाव प्रधान कहानियाँ प्रायः प्रतीकवादी कहानियों का रूप धारण कर लेती हैं क्योंकि ये कहानियाँ अपने भाव चित्रों में प्रतीकों का सहारा लेकर मानसिक चित्रों और आन्तरिक सौन्दर्य के रूप को साकार रूप देने में सफल होती हैं।
मनोविश्लेषणात्मक कहानी-हिन्दी साहित्य में मनोविश्लेष्णात्मक कहानियों का सफल आरम्भ जैनेन्द्र कुमार से हुआ। मनोवैज्ञानिक कहानियों के विकास के क्रम में ही मनोविश्लेषणात्मक कहानियाँ आती हैं। इन कहानियों में घटनाओं और कार्यों की अपेक्षा मानसिक उहापोह और मनोविश्लेषण को प्रमुखता दी जाती है। इन कहानियों में विद्रोह पाप और अपराध के विश्लेषण हुए तथा पापी विरोधी और अपराधी के प्रति करुणा सहानुभूति और दया की भावना लायी गयी तथा स्त्री-पुरुष के सम्बन्धों पर मौलिक ढंग से विचारे हुए इन कहानियों में अपूर्व ढंग से और एक नये दृष्टिकोण से सामाजिक मूल्यों और प्रश्नों को देखा एवं परिभाषित किया जाता है। जैसे जैनेन्द्र की कहानी क्या हो एक रात, ग्रामोफोन का रिकार्ड, इलाचन्द्र जोशी की मैं, अज्ञेय की विपथगा, साँप, कोठरी का बात इसी प्रकार की कहानियाँ है।
कहानी के शैलीगत भेद-शैली तत्व कहानी कला की वह रीति है जो इसमें अन्य तत्वों का अपने विधान में उपयोग करती है। कहने का तात्पर्य यह है कि शैली के अन्तर्गत कहानी कला निर्माण की विभिन्न प्रणालियों एवं अभिव्यक्ति के तत्व आते हैं। जिसके प्रयोग से कहानीकार अपने भावों को मूर्त करता है। कहानी शैलीगत वर्गीकरण में वर्तमान युग में कहानी लेखन की अनेक शैलियाँ दिखाई पड़ती हैं। यों तो अधिकतर कहानी वर्णनात्मक शैली में लिखी जाती है किन्तु ऐतिहासिक आत्मकथात्मक, संवादात्मक और पत्रात्मक शैली भी विकसित है। कुछ लेखकों ने डायरी शैली में भी लिखी है। इसके बाद संस्मरणों, रेखाचित्रों में भी कहानी लिखी है। कहानी शैलीगत भेद निम्न हैं।
1. कहानी की ऐतिहासिक शैली- इसके अन्तर्गत कहानीकार तटस्थ होकर कथावाचक के रूप में कहानी की रचना करता है। जो पूर्णतः वर्णन पर आधारित होती है। वर्णनात्मक शैली की कहानी इसी के अन्तर्गत आती है। कहानी का सूत्रपात कहानीकार होता है और नायक वह यानी अन्य पुरुष होता है। स्थान-स्थान पर बौद्धिक विवेचन, भावात्मक वर्णन और विश्लेषण आदि को भी स्थान मिलता है।
2. कहानी की आत्मकथात्मक शैली इस शैली में कहानीकार या कहानी का कोई पात्र मैं अर्थात् स्वयं के आधार पर आत्मकथा के रूप में पूरी कहानी कहता है। जैसे-इलाचन्द्र जोशी की दीवाली, होली, अज्ञेय की मंसो इसी प्रकार की कहानियाँ हैं।
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